लघु कथा: मृत्यु का सच


मित्र के पिता जी के अंतिम संस्कार के लिए शमशान घाट जाना पड़ा था मित्र मेरा काफी घनिष्ठ  था,हम सब को संस्कार की सामग्री जुटाना जरूरी था ईसलिये मित्र को बीना बताये मशान के साथ लगे लकड़ी टाल से  लकड़ी लेने गयावहां पहुंच कर देखा मुरारी खड़ा था, पुराना परिचित,मित्र, देखकर  मुस्कुराया बोला किसी के अंतिम संस्कार में आए हो ?, मैंने हामी भरी,बोला बहुत दिन बाद मिले हो, चाय चलेगी, मेरे मना करने के बाद मैंने लकड़ी लेकर,पूछा कितना पैसा हुआ मित्र, उसने कहा दाह संस्कार करके आओ, ले लूंगा, मुझे आश्चर्य हुआ, पूछा सबके साथ ऐसा ही करते हो या सिर्फ मेरे साथ ही ऐसी रियायत है ,बोला नहीं अमूमन सभी के साथ ऐसा करता हूं, मैंने कहा फिर कोई लौट कर आता है पैसा देने? नही आया , तब क्या करते हो, घाटा हो जाता होगा, उसने सपाट लहजे में जवाब दिया नहीं, ऐसा नहीं होता हैं, दो चार लोग ऐसे भी हैं जो नहीं दे जाते, मैंने उत्सुकता वश पूछा तो पैसा डूब जाता होगा, उधारी वापस नहीं आती होगी, उसने कहा कुछ बाद में देकर जाते हैं, लेकिन उधारी डूबती नही, यह शमशान घाट है अंत में तो सभी को यहां आना ही है, वह नहीं देगा तो उसके रिश्तेदार दे जाएंगे, यह घाटे का व्यापार नहीं है,क्योंकि मृत्यु तो सबको एक दिन आनी ही है, और श्मशान भी सबको आना है कोई पैसा दिए बिना बच नहीं सकता,यह धंधा फायदे का है, ऐसा कहकर वह खिल खिलाकर हस दिया।
संजीव ठाकुर,कवि,कथाकार, रायपुर,